रंजना शरण सिन्हा
कौन हो तुम ?
प्रतिबिंबित हो तुम शब्दों में
अनजान-अनाम -सी एक छवि
इस शाम की नीली चादर में
तन्हा-तन्हा दिल एक कवि
ख़्वाबों की क़ुर्बत सच की दूरी
भला जानता कौन उन्हें ?
मालूम नहीं घड़ियाँ सतरंगी
बुनती क्यों अनचाहे लम्हें ?
लहरों – सा उद्वेलित मन
सागर-तट से टकराता है
शंख – सीपियाँ यादों की
बन ठहर वहीं रह जाता है
रुकती घड़ियाँ गिरती साँसें
यह चाँद भी फीका पीला है
अब कहाँ कारवाँ तारों का
पलकों का चिलमन गीला है
क़तरा- क़तरा दिल घुलता है
पिघली यादों के साये में
पतझड़ का मौसम आता ज्यों
सूखे शजरों के काये में
—© रंजना शरण सिन्हा